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नारायण कवच हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और शक्तिशाली मंत्र है। यह भगवान विष्णु को समर्पित है और ऐसा माना जाता है कि इसका जाप करने से भक्त को सभी प्रकार के संकटों से मुक्ति मिलती है। यह कवच का पाठ करने से भक्तों को भगवान विष्णु जी का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उनके सभी प्रकार के दुख दूर हो जाते है।

नारायण कवच में भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों और गुणों का वर्णन किया गया है। यह कवच वास्तव में बहुत मंगलकारी है इस कवच के पाठ में भक्त भगवान विष्णु जी से प्रार्थना करता है की वह भक्त को अपनी शरण में ले और आशीर्वाद प्रदान करे।

तो आइये इस लेख में हम भगवान नारायण कवच के बारे में जानते है और इसके पाठ के महत्त्व और लाभ को भी जानते है।

नारायण कवच (Narayan Kavach)

ॐ श्रीगणेशाय नमः ।
ॐ नमो नारायणाय ।

—|| अङ्गन्यासः ||—

ॐ ॐ नमः पादयोः । ॐ नं नमः जानुनोः ।
ॐ मों नमः ऊर्वोः । ॐ नां नमः उदरे ।

ॐ रां नमः हृदि । ॐ यं नमः उरसि ।
ॐ णां नमः मुखे । ॐ यं नमः शिरसि ॥

—|| करन्यासः ||—

ॐ ॐ नमः दक्षिणतर्जन्याम् । ॐ नं नमः दक्षिणमध्यमायाम् ।
ॐ मों नमः दक्षिणानामिकायाम् ।ॐ भं नमः दक्षिणकनिष्ठिकायाम् ।।१।।

ॐ गं नमः वामकनिष्ठिकायाम् । ॐ वं नमः वामानामिकायाम् ।
ॐ तें नमः वाममध्यमायाम् । ॐ वां नमः वामतर्जन्याम् ।।२।।

ॐ सुं नमः दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि । ॐ दें नमः दक्षिणांगुष्ठाय पर्वणि ।
ॐ वां नमः वामांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि । ॐ यं नमः वामांगुष्ठाय पर्वणि ॥३।।

—|| विष्णुषडक्षरन्यासः ||—

ॐ ॐ नमः हृदये । ॐ विं नमः मूर्धनि ।
ॐ षं नमः भ्रुवोर्मध्ये । ॐ णं नमः शिखायाम् ।।१।।

ॐ वें नमः नेत्रयोः । ॐ नं नमः सर्वसन्धिषु ।
ॐ मः अस्त्राय फट् प्राच्याम् । ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेयाम् ।।२।।

ॐ मः अस्त्राय फट् दक्षिणस्याम् । ॐ मः अस्त्राय फट् नैरृत्ये ।
ॐ मः अस्त्राय फट् प्रतीच्याम् । ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्ये ।।३।।

ॐ मः अस्त्राय फट् उदीच्याम् । ॐ मः अस्त्राय फट् ऐशान्याम् ।
ॐ मः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वायाम् । ॐ मः अस्त्राय फट् अधरायाम् ।।४।।

अथ श्रीनारायणकवचम् ।

—|| राजोवाच ||—

यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान् ।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ॥_१

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् ।
यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ॥_२

—|| श्रीशुक उवाच ||—

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते ।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ॥_१

—|| विश्वरूप उवाच ||—

धौताण्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदण्मुखः ।
कृतस्वाण्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ॥_१

नारायणमयं वर्म सन्नह्येद्भय आगते ।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ॥_२

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत् ।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ॥_३

करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया ।
प्रणवादियकारान्तमण्गुल्यण्गुष्ठपर्वसु ॥_४

न्यसेद्धृदय ॐकारं विकारमनु मूर्धनि ।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ॥_५

वेकारं नेत्रयोर्युJण्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु ।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः ॥_६

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ।
ॐ विष्णवे नम इति ॥_७

आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् ।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ॥_८

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताण्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे ।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-
पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥_९

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-
र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् ।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्
त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥_१०

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः
पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः ।
विमुJण्चतो यस्य महाट्टहासं
दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥_११

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः ।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान् ॥_१२

मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-
न्नारायणः पातु नरश्च हासात् ।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः
पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥_१३

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-
द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥ १७॥

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्या-
द्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा ।
यज्ञश्च लोकादवताJण्जनान्ता-
द्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः ॥_१४

द्वैपायनो भगवानप्रबोधा-
द्बुद्धस्तु पाखण्डगणप्रमादात् ।
कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु
धर्मावनायोरुकृतावतारः ॥_१५

मां केशवो गदया प्रातरव्या-
द्गोविन्द आसण्गवमात्तवेणुः ।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-
र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥_१६

देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा
सायं त्रिधामावतु माधवो माम् ।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे
निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥_१७

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः
प्रत्युष ईशोऽसिधरो जनार्दनः ।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते
विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥_१८

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि
भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम् ।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु
कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥_१९

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिण्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि ।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-
भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥_२०

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-
पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् ।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो
भीमस्वनोऽरेहृ।र्दयानि कम्पयन् ॥_२१

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य-
मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।
चक्षूंषि चर्मJण्छतचन्द्र छादय
द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥_२२

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च ।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य वा ॥_२३

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् ।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः ॥_२४

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः ।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥_२५

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः ।
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः ॥_२६

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् ।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ॥_२७

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् ।
भूषणायुधलिण्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥_२८

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः ।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥_२९

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-
दन्तर्बहिर्भगवान्नारसिंहः ।
प्रहापयं।cलोकभयं स्वनेन
स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥_३०

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम् ।
विजेष्यस्यJण्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ॥_३१

एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।
पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते ॥_३२

न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् ।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥_३३

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन् द्विजः ।
योगधारणया स्वाण्गं जहौ स मरुधन्वनि ॥_३४

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा ।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ॥_३५

गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्षिराः ।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ॥_३६

—|| श्रीशुक उवाच ||—

य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः ।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥_१

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः ।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ॥_२

—॥ इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥—

यह भी देखें –

नारायण कवच का पाठ करने की महत्वपूर्ण बातें

नारायण कवच का पाठ भक्त प्रातःकाल या संध्याकाल में कर सकते है। इसके अलावा संकट या विपत्ति के समय सुरक्षा हेतु इसका पाठ करना विशेष रूप से लाभकारी माना जाता है। अगर आप विशेष मुहूर्त में नारायण कवच का जाप करते हो तो इसका प्रभाव अधिक हो सकता है जैसे कि गुरुवार, एकादशी, या भगवान विष्णु के पवित्र दिन। लेकिन सामान्य दिनों में भी इसका नियमित जाप भक्त के लिए बहुत लाभकारी है।

नारायण कवच का पाठ करते समय भक्त को मन और शरीर को शुद्ध रखना चाहिए और मंत्रों का उच्चारण सही और स्पष्ट करना चाहिए। इसके साथ ही भक्त को भगवान विष्णु पर अटूट विश्वास होना जरुरी है।

नारायण कवच के महत्व और लाभ

नारायण कवच के बारे में श्रीमद्भागवतम् में यह कहा गया है की जब देवराज इन्द्र भगवान को असुरों को हराने में बहुत परेशानी हो रही थी तब गुरु बृहस्पति जी ने इन्द्रदेव को नारायण कवच की शक्ति प्राप्त की थी। और इसके बाद देवताओ को असुरों के विरुद्ध युद्ध में विजय प्राप्त हुई।

देवताओं के साथ साथ हम मनुष्यों के लिए भी नारायण कवच बहुत लाभकारी है। नारायण कवच के पाठ से भक्तों को सभी प्रकार के भय, शत्रुओं और बुरी शक्तियों से रक्षा प्रदान होती है। नियमित रूप से नारायण कवच का जाप करने पर व्यक्ति को जीवन में सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त होती है। इसके अलावा भक्त की सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है और वह आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति करता है।

Narayan Kavach PDF

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