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दुर्गा सप्तशती एक ऐसा पाठ हैं जिसमे माता दुर्गा के विभिन रूपों और उनकी शक्तियों के बारे में बताया गया हैं। इस पाठ में माता ने किस प्रकार महिषासुर नामक राक्षस का वध किया इसके बारे में भी बताया गया हैं। साथ साथ अन्य राक्षस जैसे की मधु कैटभ, महिषासुर, रक्तबीज, शुम्भ निशुम्भ, धूम्रलोचन और चण्ड-मुण्ड इत्यादि के वध के बारे में भी बताया गया हैं। पाठ में कुल 13 अध्याय हैं जिनमे 700 श्लोक मौजूद हैं। इन 700 श्लोक की वजह से इस पाठ को “सप्तशती” कहा जाता हैं।

दुर्गा सप्तशती पाठ (Durga Saptashati Path)

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम: |
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम्
||

ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा |
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ||
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा |
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
||

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः।

ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकामने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्‌यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्परं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च

दुर्गा सप्तशती पाठ Durga Saptashati Path

मार्कण्डेय उवाच॥

शापोद्धार मंत्र

इस शापोद्धार मंत्र का जाप शुरुआत में सात बार और अंत में सात बार किया जाता हैं।

उत्कीलन मंत्र

इस उत्कीलन मंत्र का जाप शुरुआत में इक्कीस बार और अंत में इक्कीस बार किया जाता हैं।

मृतसंजीवनी विद्या मंत्र

मृतसंजीवनी विद्या मंत्र जा का जाप आदि में सात बार और अंत के समय सात बार किया जाता हैं।

सप्तशती-शापविमोचन मंत्र

पाठ के शुरू होने से पहले इस मंत्र का जाप 108 बार किया जाना चाहिए। ध्यान रहे की इस मंत्र का जाप पाठ के अंत में नहीं करना हैं।

चण्डिका शाप विमोचन मंत्र

दुर्गा सप्तशती पाठ के आरम्भ में चण्डिका शाप विमोचन मंत्र जा पाठ करना हैं।

1. ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

2. ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

3. ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

4. ॐ क्षुं धुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

5. ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

6. ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

7. ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

8. ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

9. ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

10. ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

11. ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

12. ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

13. ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

14. ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

15. ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

16. ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

17. ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥

18. ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-महासरस्वतीस्वरूपिण्यै
त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥

19. इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥

20. एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥

दुर्गा सप्तशती के अध्याय

दुर्गा सप्तशती में कुल 13 अध्याय मौजूद हैं। सभी अध्याय कुछ इस प्रकार हैं।

प्रथम अध्यायमधु-कैटभ संहार
इस अध्याय में देवी दुर्गा ने राक्षस मधु और कैटभ का वध किया था जिसका सम्पूर्ण पाठ मौजूद हैं।

द्वितीय अध्यायमहिषासुर-वध
इस दूसरे अध्याय में महिषासुर नामक असुर की वजह से देवी देवताओ को कष्ट सहना पड़ा। महिषारूर के उत्पीड़न से बचने के लिए सभी देवताओ ने देवी दुर्गा को याद किया और देवी ने महिषासुर का वध किया।

तृतीय अध्यायधूम्रलोचन-वध
इस अध्याय में देवी ने धूम्रलोचन नामक दैत्य का संहार किया।

चतुर्थ अध्यायचण्ड और मुण्ड वध
इस अध्याय में देवी काली ने चण्ड और मुण्ड नामक असुरों के वध का वर्णन हैं।

पंचम अध्यायरक्तबीज-वध
एक ऐसा राक्षस जो मर कर पुनः जीवित हो जाता था। उसका नाम था रक्तबीज। देवी ने अपनी शक्तियों से इस राक्षस का वध किया। जिसका वर्णन इस 5वे अध्याय में हैं।

षष्ठम अध्यायशुम्भ-निशुम्भ का आह्वान
इस अध्याय में शुम्भ और निशुम्भ असुरों का वर्णन हैं।

सप्तम अध्यायशुम्भ-निशुम्भ की सेना का संहार
इस अध्याय में शुम्भ और निशुम्भ असुरों की सेनाओं का वर्णन हैं। जिनका संहार देवी द्वारा किया गया।

अष्टम अध्यायशुम्भ-वध
इस अध्याय में शुम्भ का वध देवी द्वारा किया जाता है।

नवम अध्यायनिशुम्भ-वध
इस अध्याय में निशुम्भ का वध देवी के हाथों होता है।

दशम अध्यायदेवताओं की स्तुति
असुर शुम्भ और निशुम्भ के वध के बाद, सभी देवता देवी की स्तुति करते हैं और उनकी महिमा का गुणगान करते हैं।

एकादश अध्यायदेवी का वरदान देना
इस अध्याय में बताया गया हैं की जो भी भक्त देवी आराधना करेगा उनके सभी संकटों का नाश होगा।

द्वादश अध्यायफलश्रुति
इस अध्याय में देवी के दुर्गा सप्तशती के पाठ और पूजा के बारे में बताया गया हैं।

त्रयोदश अध्यायदेवी का अंतर्धान
इस अध्याय में देवी वचन देती हैं की जो भक्त उन्हें सच्चे मन से याद करेगा उनकी सभी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। और जब जब पृथ्वी पर अत्याचार, अधर्म और संकट बढ़ेगा, तब-तब वे अपने भक्तों की रक्षा के लिए पुनः अवतार लेंगी।

देवी कवच का पाठ 

॥ अथ देव्याः कवचम् ॥

विनियोगः
ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठांगत्वेन जपे विनियोगः।
॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥

मार्कण्डेय उवाच
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥

ब्रह्मोवाच

  1. अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्‌।
    देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥
  2. प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
    तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्‌॥
  3. पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
    सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्‌॥
  4. नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
    उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥
  5. अग्निता दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
    विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥
  6. न तेषा जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
    नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥
  7. यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धि प्रजायते।
    ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥
  8. प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
    ऐन्द्री गजसमानरूढा वैष्णवी गरुडासना॥
  9. माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
    लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥
  10. श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
    ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥
  11. इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
    नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥
  12. दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
    शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्‌॥
  13. खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
    कुन्तायुधं त्रिशूलं च शांर्गमायुधमुत्तमम्‌॥
  14. दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
    धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वस॥
  15. नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
    महावले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥
  16. त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिन।
    प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥
  17. दक्षिणेऽवतु वाराहीनैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
    प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥
  18. उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
    ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेद्धस्ताद् वैष्णवी तथा॥
  19. एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
    जया में चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥
  20. अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
    शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥
  21. मालाधारी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
    त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥
  22. शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
    कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले च शांकरी॥
  23. नासिकायां सुगन्दा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
    अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥
  24. दन्तान्‌ रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
    घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥
  25. कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमंगला।
    ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥
  26. नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
    स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू में व्रजधारिणी॥
  27. हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चांगुलीषु च।
    नखांछूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षतु कलेश्वरी॥
  28. स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
    हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥
  29. नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
    पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥
  30. कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
    जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥
  31. गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
    पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥
  32. नखान्‌ दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
    रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥
  33. रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
    अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥
  34. पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
    ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥
  35. शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
    अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥
  36. प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्‌।
    वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥
  37. रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
    सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥
  38. आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
    यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥
  39. गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
    पुत्रान्‌ रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥
  40. पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
    राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥
  41. रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
    तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥
  42. पदमेकं न गच्छेतु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
    कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥
  43. तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।
    यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्‌।
    परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्‌॥
  44. निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
    त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्‌॥
  45. इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्‌।
    यः पठेत्प्रयतो नित्यं सदा तस्य न संशयः॥
  46. उपदिष्टं महादेव्या त्रैलोक्यं तु यदर्थकम्‌।
    यथालब्धं गदावृत्तं एष तस्य परं सुखम्‌॥

उपसंहार

इति श्री दुर्गाकवचं सम्पूर्णम्॥

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